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Title: प्रज्ञा के सप्त साधनोपक्रमों का परिचय (पातञ्जल योगदर्शन के विशिष्ट सन्दर्भ में)
Authors: Ghosh, Sougata
Keywords: द्रष्टा
दृश्य
साधक
अविद्या
प्रकृति
पुरुष
चित्त
वृत्ति
Issue Date: Jan-2018
Citation: 3rd World Congress of Vedic Sciences (VVVS), Deccan College, Deemed University,Pune,India,10-13 January 2018.
Abstract: आचार्य पतञ्जलि के अनुसार योग की परिभाषा “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”। अर्थात् चित्तवृत्ति निरोध की स्थिति ही योग है। आचार्य के अनुसार प्रकृति और पुरुष के संयोग का मूल कारण अविद्या है। इसी अविद्या के कारण ही बार बार हमें इस संसार चक्र में आना पडता है। अर्थात् संसाररुपी दुःखो का कारण द्रष्टा और दृश्य का संयोग है, और उस संयोग का भी निमित्त अविद्या को माना गया है । द्रष्टा और दृश्य की भिन्नता की स्थिति ही मोक्ष है। इसी स्थिति को आचार्यो ने विवेकख्याति संज्ञा प्रदान की है । द्रष्टा और दृश्य में भिन्नता के वास्तविक बोध हो जाता है, अर्थात् अविद्यादि दोषो के निवृत्त हो जाने पर चित्तवॄत्ति में उत्थित विकार भी शान्त हो जाता है। चित्त की प्रकृति स्वभावतया शान्त है। वृत्तियो के होने पर ही चित्त की सत्ता सिद्ध है । साधक का चित्त वृत्तियो से रहित हो जाने से साधक को विवेकख्याति बोध हो जाता है जिससे पुनः उस साधक की प्रज्ञा अविद्यादि क्लेशो से लिप्त नहीं होती। यही प्रज्ञा की चरम अवस्था है। आचार्य पतञ्जलि के अनुसार उपरोक्त विवेकख्याति सम्पन्न योगी की प्रज्ञा सात प्रकार की बताया गया हैं। “तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा” अर्थात् उस विवेकख्याति सम्पन्न योगी की उत्कॄष्ट अवस्था वाली प्रज्ञा सातप्रकार की बतायी गयी है । योग दर्शन मे चतुर्व्यूह की मान्यता है – हेय,हेयोपाय,हान,हानोपाय । इन चार को ही आचार्य ने सप्तप्रज्ञाओ में प्रथम चार प्रज्ञा के रुप में स्थान दिया है। 1. परिज्ञानं हेयं नास्य पुनः परिज्ञेयमस्ति। 2. क्षीणाः हेयहेतवो न पुनरेतेषां क्षेतव्यमस्ति। 3. साक्षाक्तृतं निरोधसमाधिना हानम्। 4. भावितो विवेकख्यातिरुपो हानोपाय इति। इन्ही चार प्रज्ञाओ को आचार्य ने कार्यविमुक्ति प्रज्ञा कहा है। “एषा चतुष्टयी कार्यविमुक्तिः प्रज्ञायाः” - अर्थात् इन चार प्रज्ञाओ के माध्यम से साधक अपने आप को अविद्यादि क्लेशो से मुक्त कर लेते है। अविद्यादि क्लेशो से मुक्त हो जाना ही द्रष्टा और दृश्य में भेद की प्रतीति हो जाना है। अतः प्रज्ञा के यह चतुर्धा प्रकार साधक को विवेकख्याति सम्पन्न होने में सहायता करता है। अन्तिम तीन प्रज्ञा विवेकख्याति स्थिति की चरमावस्था है। उपरोक्त चार प्रज्ञा के स्थित हो जाने पर बुद्धि का अधिकार समाप्त हो जाता है (चरिताधिकारा बुद्धि) | विवेकख्याति सम्पन्न योगी केवल सत्वादि गुणो से युक्त होता है परन्तु सत्वादि गुणो के भी विषय होने से इन्हे अन्त में त्यागना होता है। अन्त में ये सत्वादि गुण भी अव्यक्त प्रकृति में लीन होने लगता है जैसे पर्वत शिखर से फिसले हुए पत्थर भूमि मे लीन हो जाते है। (गुणा गिरिशिखरकूटच्युता इव ग्रावाणो निरवस्थानाः स्वकारणे प्रलयाभिमुखाः सह तेनास्तं गच्छन्ति।न चैषां प्रविलीनानां सति पुनरुत्पादः प्रयोजनाभावादिति।) अन्तिम अर्थात् सप्तम प्रज्ञा में साधक गुणो के सम्बन्ध से परे हो जाता है। उस समय वह् अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है। (एतस्यामवस्थायां गुणस्म्बन्धातीतः स्वरुपमात्रज्योतिरमलः केवली पुरुष इति।) इस प्रकार आचार्य पतञ्जलि के अनुसार उपर्युक्त सात प्रकार की प्रज्ञाओ को जान लेने से पुरुष कुशल हो जाता है। प्रस्तुत शोधपत्र में इन उपर्युक्त विषयो पर विषद आलोचना की जायेगी।
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URI: http://hdl.handle.net/2080/2914
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